तवांग झड़प के मायने - डॉ. श्रीश कुमार पाठक
“चीनी सरकार ने अपने शांतिपूर्ण टोटकों से हमें छलने की कोशिश की है।”
(सरदार वल्लभ भाई पटेल, 1950)
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9 दिसंबर की अलसुबह, अरुणाचल प्रदेश के तवांग टाउन से करीब 25 किमी दूर, ऊपर पूर्वी तवांग (यांगजी क्षेत्र) के उस हिस्से में जहाँ सामान्यतया मानव आबादी नहीं होती, चीनी सेना व उनके गश्ती दल के तकरीबन 300 से 500 सैनिकों की कोशिश थी कि वास्तविक नियंत्रण रेखा की वस्तुस्थिति में परिवर्तन किया जाए। लुंगरू चारागाह के तकरीबन उत्तर में (मोगा-चुना परिक्षेत्र) पहले से ही मुस्तैद भारतीय सैनिकों ने चीनियों को चौंकाते हुए उन्हें वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC)’ पीछे खदेड़ दिया। दोनों ओर के सैनिकों की इस झड़प में बंदूकें नहीं चलीं लेकिन कंटीले तार लपेटे लाठियों, डंडों और पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। दोनों ओर के ही सैनिक घायल हुए, लेकिन अंततः भारतीय सैनिकों ने नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति बदलने की चीनी मंसूबे को असफल कर दिया।
9 दिसंबर की यह खबर 13 दिसम्बर तक सामने आयी। संसद में रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने इस घटना के बारे में देश को प्रामाणिक रूप से अवगत कराते हुए वक्तव्य दिया कि बहादुर भारतीय जवानों ने चीन की इस कोशिश को नाकाम कर उन्हें नियंत्रण रेखा के पीछे खदेड़ दिया है। उन्होंने यह भी बताया कि 11 दिसम्बर को दोनों ओर के स्थानीय कमांडरों ने यथास्थिति बनाए रखने के लिए फ्लैग मीटिंग भी की, इसके अलावा कूटनीतिक स्तर पर भी भारत ने चीन से इसपर संपर्क साधा है। श्री राजनाथ सिंह के इस वक्तव्य के घंटों बाद चीनी सेना के पश्चिमी थियेटर कमांड के प्रवक्ता ने भी मिलता-जुलता बयान दिया। पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने अपने वक्तव्य में नियंत्रण रेखा पर वर्तमान स्थिति को सुस्थिर बताया। इसके बाद 20 दिसंबर को दोनों सेनाओं के प्रतिनिधियों ने चुशूल-मॉल्डो बॉर्डर मीटिंग पॉइंट पर 17वीं दौर की वार्ता सम्पन्न की और 22 दिसंबर को ‘साझा वक्तव्य’ जारी किया। साझा वक्तव्य से दोनों पक्ष यह दर्शाना चाहते हैं कि दोनों पक्षों की संवाद के जरिए हल निकालने की मंशा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस वक्तव्य में हालिया तवांग झड़प के बारे में कोई चर्चा नहीं है। वक्तव्य में पश्चिमी प्रभाग के सीमा-विवादों को शांति एवं धैर्य से निपटाने की बात दोहराई गयी।
तवांग के स्थानीय निवासी एवं सीमा जागरण मंच के सक्रिय कार्यकर्ता श्री न्याकेन रिबा (केन्नी जी) बताते हैं कि "दिल्ली की मीडिया में चाहे जैसे इसे परोसा जाए लेकिन ऐसी झड़पें साल में एक-दो बार तो होती रहती हैं यहाँ। यह क्षेत्र मुख्यमंत्री श्री पेमा खांडु का विधानसभा क्षेत्र भी है और उनका दौरा भी हाल ही में हुआ है। पिछले साल अक्टूबर (2021) में भी इसी क्षेत्र में एक हल्की झड़प हुई थी। महत्वपूर्ण यह है जानना कि स्थानीय अरुणांचली, भारतीय सेना पर अटूट विश्वास रखते हैं और 2014 के बाद विशेष रूप से अवसंरचना विकास में ज्यों-ज्यों तेजी आती गयी है, स्थानीय निवासियों का जीवन पहले की तुलना में सहज हुआ है।"
तवांग: आध्यात्मिक एवं सामरिक क्षेत्र
पांचवें दलाई लामा एंगवांग लॉबसैंग ग्यात्सो (The Great Fifth) ने अपने कार्यकाल वर्ष 1642 से 1682 के मध्य समूचे तिब्बत को एकीकृत करने में सफलता प्राप्त की थी। उस एकीकृत तिब्बत के दक्षिणी छोर का प्रबंधन तवांग मठ से संचालित होता था। तवांग मठ एक आध्यात्मिक पीठ भी है और अतीत में यह एक रक्षा किले की तरह भी था। तवांग और केमेंग क्षेत्र को मिलाकर इस क्षेत्र को मोनयुल (The Lower Land) कहा जाता था, जो मोनपा (स्थानीय तिब्बती) लोगों द्वारा संरक्षित था।
पाँचवें दलाई लामा ने मोनयुल में मठ स्थापित करने के लिए अपने विश्वस्त मारग लाडो ग्यात्सो को भेजा। इस क्षेत्र में आकर मारग ग्यात्सो का घोड़ा बार-बार गुम होकर एक ही स्थान पर पाया जाता। उस विशेष स्थान पर ही तवांग मठ की स्थापना की गयी। स्थानीय भाषा में ‘ता’ का अर्थ का घोड़ा है और ‘वांग’ का अर्थ, ‘आशीर्वाद’, ‘कब्जा’ अथवा ‘चुना हुआ’ है। इसप्रकार तवांग वह स्थान है जिसे घोड़े द्वारा चुना गया है। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला के एक मठ से स्नातक कर रहे तवांगवासी फुनसोक वांगे ने लेखक को बताया समकालीन बौद्ध साहित्य के अनुसार मोनयुल की लंबाई घोड़े के द्वारा 15 दिन में पूरी की गयी दूरी के बराबर थी और इसकी चौड़ाई पूरा करने में घोड़े को 2 से 3 दिन लगते थे । तवांग मठ भारत का सबसे विशाल बौद्ध मठ है और पोटला मठ के बाद दुनिया का सबसे बाद मठ है । तवांग में छठवें दलाई लामा ने जन्म लिया था और वर्तमान चौदहवें दलाई लामा जब 1959 में ल्हासा छोड़ भारत आए तो तेजपुर (आसाम) पहुँचने से पहले कुछ समय उन्होंने इसी तवांग मठ में बिताया था।
तवांग की ही रहने वाली और दिल्ली में सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाली छात्रा तेनजिन लामू ने लेखक को बताया कि यांगजी क्षेत्र में ही जहाँ हालिया झड़प हुई है यहाँ कुछ समय से चीनी गश्ती बढ़ गयी है और उनका लक्ष्य संभवतः ‘पवित्र चूमिग ग्यात्से झरने’ पर पूरी तरह कब्जा करना है। कुल 108 झरनों का संकुल, यह पवित्र झरना आध्यात्मिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, अपनी मनोरम सुंदरता के लिए विख्यात इस पवित्र झरने के आसपास अरुणांचल सरकार पर्यटन-विकास भी कर रही है। लोकश्रुति है कि गुरु पद्मसंभव ने यहीं चट्टानों पर जब अपनी 108 मनकों वाली माला फेंकी तो 108 जगहों से पानी के पवित्र झरने फूट पड़े। चीनी इसी झरने को दांगजैंग झरना कहते हैं। 108 जल स्रोतों वाले इस झरने का आध्यात्मिक महत्व हिंदुओं, बौद्धों और जैनियों के लिए बहुत अधिक है।
यांगजी क्षेत्र, दरअसल 17000 फीट की ऊँचाई वाली पर्वतीय चोटी है जो भारतीय सेना को पूरे क्षेत्र की निगरानी करने में निर्णायक बढ़त प्रदान करती है। भारतीय सेना खासकर उस सड़क की समूची निगरानी कर पाती है जो तवांग को से-ला दर्रे से जोड़ती है। से-ला दर्रे से ही तवांग, मैदानी भाग से जुड़ता है। इस समय भारत सरकार, से-ला दर्रे से ही दो सुरंगों पर भी काम कर रही है जो तेजपुर (आसाम) से तवांग की दूरी को और भी कम कर देंगे। क्षेत्र के सामरिक महत्व को देखते हुए भारत सरकार मागो-थिंगबू-विजयनगर फ़्रंटियर हाइवे का भी निर्माण कर रही है।
सीमांत-रेखा (Frontier), सीमा-रेखा (Boundary) और अंतरराष्ट्रीय सीमा (Border)
किसी भी सीमा विवाद को समझने के लिए पहले कुछ मूलभूत सीमा-अध्ययन की पारिभाषिक पदावलियों को समझ लेना आवश्यक है। सीमांत-रेखा (Frontier), सीमा-रेखा (Boundary) एवं अंतरराष्ट्रीय सीमा (Border/International Border) बहुधा हम इन तीन पारिभाषिक पदों का प्रयोग असावधान हो एक-दूसरे के स्थान पर कर देते हैं लेकिन यह तीनों, सीमा-निर्माण की तीन अलग-अलग अवस्थाओं के द्योतक हैं।
वह भू-भाग जो दो देशों के मध्य है और अभी किसी भी देश के द्वारा कब्जे में नहीं किया गया है, लेकिन जल्द ही दोनों देशों द्वारा किया जाएगा, उस भू-भाग में स्थित ऐसे दो देश कब्जे के पश्चात अपनी सबसे बाहरी रेखाओं को अपनी-अपनी सीमांत-रेखा कहेंगे। जल्द ही दोनों देशों की सीमांत रेखाएं बिल्कुल करीब हो जाएंगी और दोनों देशों के मध्य कोई भू-भाग कब्जे के लिए शेष नहीं होगा; अब दोनों देश अपनी-अपनी सबसे बाहरी सीमांत-रेखाओं को सीमा-रेखा कहेंगे।
सीमांत-रेखा से सीमा-रेखा तक का विकास देश एकपक्षीय रीति से करते हैं। लेकिन सीमा-रेखा से अंतरराष्ट्रीय सीमा तक का विकास एकपक्षीय नहीं हो सकता, इसके लिए दोनों देशों को मिलकर महत्वपूर्ण चार चरणों वाली प्रक्रिया से अनिवार्यतः गुजरना होगा। पहले चरण में दोनों देश सीमा की संकल्पना (Setting the Definition) पर सहमत होंगे। फिर दोनों देशों के मानचित्रकार अपने-अपने राजनयिकों के निर्देशन में मानचित्र पर आपसी सहमति से रेखा (Delimitation) अंकित करेंगे। इस के पश्चात जो रेखा सहमति से मानचित्र पर उकेरी गयी है उसे जमीन पर स्तंभों आदि के माध्यम से चिन्हित (Demarcation) किया जाएगा। अंतिम प्रक्रिया सतत होगी जिसे प्रशासनिक प्रक्रिया (Administration) कहते हैं, इसमें दैनंदिन रूप से सामानों एवं लोगों की आवाजाही को नियमित किया जाता है। जिस सीमा-रेखा पर यह चारों प्रक्रिया सम्भव हो जाती है, वह पूरी तरह से अंतरराष्ट्रीय सीमा (International Border) बन जाती है। सीमा से जुड़े विवाद अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सम्भव नहीं होते क्योंकि चारों प्रक्रियाओं के साथ किसी विवाद की गुंजाइश शेष नहीं रहती लेकिन ‘सीमांत-रेखा (Frontier) से सीमा-रेखा (Boundary)’ तक के विकास में सीमा-विवादों के लिए अवकाश होता है।
भारत- चीन सीमा विवाद
एशिया, विशेषतया दक्षिण एशिया के अधिकांश सीमा-विवादों के मूल में यही कारण है कि उपनिवेशवादी अतीत में उपरोक्त चारों प्रक्रियाएं या तो शुरू ही नहीं हुईं या अधूरी रह गयी हैं। भारत-चीन सीमा भी इसका अपवाद नहीं है। स्वतंत्र भारत और स्वतंत्र चीन ने मिलकर अभी तक यह चारों प्रक्रियाएं पूरी नहीं कर सके हैं। दोनों देशों के मध्य सीमा-विवाद के साये में ही एक युद्ध भी हो चुका है। युद्ध के बाद 1988 में सीमा-विवाद सुलझाने के लिए दोनों देशों के मध्य 'ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप ऑन द बाउंड्री क्वेश्चन' का गठन किया गया था। 1989 से 2005 तक कुल 15 बार की वार्ता के बाद भी कोई सार्थक प्रगति नहीं हो सकी। पिछले दस वर्षों में दोनों देशों ने वर्किंग मैकेनिज्म फॉर कंसल्टेशन एंड कोआर्डिनेशन ऑन इंडिया-चाइना बॉर्डर अफेयर्स (WMCC)' के तहत कोई 25 बार बैठकें की हैं, इससे भी कोई ठोस हल नहीं निकला है।
भारत-चीन लगभग 3488 किमी लंबी सीमा साझा करते हैं। 1962 के युद्ध के बाद अस्तित्व में आयी 'वास्तविक नियंत्रण रेखा को (LAC) दोनों देश अपने-अपने अवगम (Perception) के अनुरूप समझते हैं। समारिक विश्लेषक मनोज जोशी इसलिए ही इसे लाइन ऑफ परसेप्शन कहते हैं। चूंकि वास्तविक नियंत्रण रेखा कभी भी जमीन पर दोनों पक्षों द्वारा सहमति से निर्धारित नहीं की गयी है, इसलिए परसेप्शन की आड़ में चीन इसकी यथास्थिति से छेड़छाड़ करता रहता है।
भारत-चीन सीमा: पूर्वी, मध्य एवं पश्चिमी प्रभाग
भारत-चीन सीमा मुख्यतया तीन प्रभागों में विभक्त है। जम्मू-कश्मीर से लगता पश्चिमी प्रभाग, उत्तराखंड व हिमाचल से जुड़ता मध्य प्रभाग और सिक्किम व अरुणांचल से सटा हुआ पूर्वी प्रभाग। यों तो दोनों देशों के मध्य तीनों ही प्रभागों में विवाद के कई स्थल हैं लेकिन मध्य प्रभाग (बाराहोटी, मुमरी जैसे कुछ बिंदु छोड़कर), बाकी दोनों प्रभागों की तुलना में संयमित सीमा-प्रभाग है। जून 2020 में गलवान का संघर्ष पश्चिमी प्रभाग में हुआ था तो हालिया झड़प पूर्वी प्रभाग के तवांग क्षेत्र में हुई है।
पूर्वी प्रभाग की सीमा का निर्धारण, वर्ष 1914 में ब्रिटिश भारत, चीन और तिब्बत के मध्य हुए शिमला समझौते से हुआ था, इस समझौते के बाद से ही मैकमोहन रेखा का प्रादुर्भाव हुआ । इस समझौते में तिब्बत की ओर से लोंचेन शात्रा पल्जोर डोरजी, ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि के तौर पर सर आर्थर हेनरी मैकमोहन और चीन की तरफ से इवान चेन ने भाग लिया था। ध्यातव्य है कि ब्रिटिश भारत की चिंता तब चीन न होकर जारशाही वाला रूस था। ब्रिटिश भारत ने तिब्बत पर चीन का सीमित वर्चस्व उन अर्थों में स्वीकार लिया था जिससे रूस और ब्रिटिश भारत के मध्य में चीन आए और भारत में ब्रिटिश हितों के बीच में जारशाही रूस कोई दखल न दे सके। गौरतलब है कि जमीन पर तिब्बत अपने पारम्परिक क्षेत्रों पर काबिज रहा जब तक कि चीन ने वर्ष 1950 से उस पर कब्जा करना आरंभ नहीं कर दिया और चीन ने बाद में इस मैकमोहन रेखा को अवैधानिक कहकर मानने से इंकार कर दियाा। इसका अर्थ यह था कि परंपरा से ब्रिटिश भारत की जो सीमा तिब्बत के साथ थी, उसे भी चीन नहीं मानने को तैयार है। इस बीच भारत के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण प्रगति यह हुई कि वर्ष 1951 में मेजर रालेंगनाओ खातिंग के नेतृत्व में भारत ने समूचे तवांग क्षेत्र में अपने प्रभुत्व में ले लिया जिसे बाद में नेफा (अब अरुणांचल प्रदेश) में संयोजित कर लिया गया।
चूँकि तिब्बत, धीरे-धीरे चीन के नियंत्रण में आ गया, चीन ने कभी तिब्बत के नियंत्रण में रहे समस्त भू-भाग को चीनी भू-भाग कहना आरंभ किया। तवांग समेत पूरे अरुणांचल को ही चीन दक्षिणी तिब्बत का भाग कहने लगा है। गौरतलब है कि मैकमोहन रेखा कभी जमीन पर जाकर चिन्हित नहीं की गयी हुई, लाल रंग की एक मोटी निब वाली कलम से मानचित्र पर ही इसे खींचा गया, जिसमें 1 इंच 7 मील को दर्शाता है। दुर्घर्ष उच्चावच वाले पहाड़ों पर 7 मील बहुत ही कठिन संशय पैदा करेंगे, इसका भी फायदा चीन उठाना चाहता है। 1962 में चीन ने मैकमोहन रेखा पर भी आक्रमण किया। भारतीय सेना ने लगभग आधे क्षेत्र से चीनी कब्जा हटा लिया था कि चीनी युद्धविराम की घोषणा कर पीछे चले गए।
पश्चिमी प्रभाग में लद्दाख से लगते हुए अक्साई चिन पर नियंत्रण को लेकर भी दोनों देशों में अलग-अलग अवधारणाएं हैं, इस समय हालांकि यह चीन के अवैधानिक कब्जे में है। वर्ष 1865 में ब्रिटिश-भारत सरकार ने जॉनसन रेखा का प्रस्ताव किया जिसमें अक्साई चिन का हिस्सा कश्मीर में रखा, वहीं मैकडोनाल्ड रेखा में इसे चीन के शिनजैंग के हिस्से में रखा, जिसे ब्रिटिश-भारत सरकार ने 1893 में प्रस्तावित किया। भारत जहाँ जॉनसन रेखा को सही मानता है वहीं चीन मैकडोनाल्ड रेखा को सही ठहराता है। अक्साई चिन को लेकर ही दोनों देशों में 1962 में युद्ध हो चुका है। युद्ध के बाद अस्तित्व में आयी ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC: Line of Actual Control) अक्साई चिन को कश्मीर से अलग करती है।
झड़प के मायने और भारतीय तैयारी
भारत-चीन सीमा अभी भी सीमा-रेखा (Boundary) से अंतरराष्ट्रीय सीमा (Border) बनने की उपरोक्त अनिवार्य चारों प्रक्रियाएं पूरी नहीं कर सकी है और ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ को भी जमीन पर दोनों पक्ष अपने-अपने अवधारणाओं के अनुरूप समझते हैं। लेकिन जिस तरह से सीमा-रेखा के दो मुख्य प्रभागों (पूर्वी और पश्चिमी) में झड़पें बढ़ी हैं वह स्वाभाविक नहीं है। सीमा-विवादों को सुलझाने के लिए चीन के साथ भारत की किसी न किसी स्तर की बातचीत अमूमन होती रहती है लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन मानो सीमा-विवाद सुलझाना ही नहीं चाहता। सेना अध्यक्ष जनरल मनोज पांडे ने उचित ही कहा कि चीन जो कहता है उसके विपरीत ही आचरण करता है इसलिए हमें उसे उसके शब्दों से नहीं उसके आचरण से ही समझने को कोशिश करनी चाहिए। सीमा-विवाद की आड़ में चीन, भारत पर एक सामरिक दबाव के नैरंतर्य को बनाए रखना चाहता है और इसके पीछे कई कारण समझ में आते हैं। शी जिनपिंग अपने तीसरे कार्यकाल (थर्ड मैंडेट ऑफ हेवेन) में चीन को लेकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को साकार करना चाहते हैं जिसमें चीन को एशिया ही नहीं विश्व की सबसे बड़ी शक्ति बनाना है।
भारत ही नहीं, चीन के जिन पड़ोसियों से उसके भू-सीमा या जल-सीमा विवाद हैं लगभग सभी से वार्ता के साथ-साथ छिटपुट झड़पें या दबाव के सामरिक प्रदर्शन भी जारी रहते हैं। ताइवान, फिलीपींस, इंडोनेसिया, वियतनाम, जापान, साउथ कोरिया, नॉर्थ कोरिया, सिंगापूर, ब्रुनेई, नेपाल, भूटान, लाओस, म्यांमार आदि सभी देशों के साथ आक्रामक चीन का यही रवैया है। लेकिन इन सभी देशों में एकमात्र भारत ही है जहाँ उसे ठोस प्रतिउत्तर मिलता है जो कि डोकलाम और गलवान संघर्ष के बाद और स्पष्ट हो गया। केवल सामरिक स्तर पर ही नहीं, भारत से चीन को कूटनीतिक स्तर पर भी चुनौती मिलती है। जहाँ भारत ने कभी भी चीन की महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट वन रीजन (OBOR) नीति को समर्थन नहीं दिया वहीं अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान के साथ मिलकर इंडो-पैसिफिक में क्वाड की रणनीतिक साझेदारी कर ली है जो यथार्थ में चीन की ही आक्रामक नीति की काट के तौर पर काम करती है। चीन अब भारत को अमेरिका के बाद दूसरी सबसे बड़ी चुनौती मानने लगा है। इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि गलवान संघर्ष में घायल हुए पीलए अफसर को बीजिंग ओलंपिक की मशाल थामने को दी गयी और इसी संघर्ष की एक फुटेज को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना की बीसवीं नेशनल कॉंग्रेस में भी दिखाया गया। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि गलवान के समय भी चीन चहुंओर अपनी कोरोना नीति को लेकर कठघरे में था और अभी इस समय भी चीन अपनी जीरो कोविड नीति को लेकर बैकफुट पे है।
अपनी ‘सलामी स्लाइसिंग (Salami Slicing)’ की नीति के साथ चीन, भारत के साथ भी बड़े युद्ध में न बदलने वाली छोटी-छोटी झड़पों के साथ बार-बार सीमा पर उलझा रहता है ताकि इसे एक बारगेनिंग चिप (Bargaining Chip) की तरह इस्तेमाल किया जा सके। यह संयोग मात्र तो नहीं है कि ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ के 100 किमी के अंदर औली में भारत-अमेरिका के अठारहवें सैन्य अभ्यास के सम्पन्न होने के 6 दिन बाद ही यह झड़प हुई। 87 वर्ष के हो चुके चौदहवें दलाई लामा के उत्तराधिकार के प्रश्न के साथ ही भारत-चीन सीमा के पूर्वी प्रभाग को झड़प के लिए चुनना भी महज संयोग नहीं है।
जितनी भारी संख्या में चीनी गश्ती दल और चीनी सैनिक इन झड़पों में शामिल हो रहे हैं वह अकारण या स्वाभाविक नहीं है, यह निश्चित ही एक सोची-समझी नीति है, जो उच्चस्तरीय चीनी प्रशासन से निर्देशित होना चाहिए। हाल के समय में चीनी दल के द्वारा सीमा पर गश्ती भी बढ़ी है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि चीन ने सीमा के अपनी ओर खासा अवसंरचना विकास किया है। इससे उन्हें टुकड़ियों को जल्द भेजने में मदद मिलती है। चीनियों के व्यवहार से स्पष्ट है कि वे मानते हैं कि शक्ति से अभी यथास्थिति को अपने पक्ष में मोड़ा जा सकता है।
इन हालातों में भारतीय तैयारियाँ भी समीचीन और समुचित हैं। सीमा के तीनों प्रभागों में भारतीय सेना सजग है और सीमाओं पर अभी अवसंरचना विकास का काम लगातार हो रहा है। पूर्वी प्रभाग में भारतीय भू-भाग का उच्चावच खासा जटिल है जबकि चीन की तरफ तिब्बतन-पठार है जो सपाट है। अवसंरचना विकास का कार्य भारतीय पक्ष के लिए अपेक्षाकृत जटिल है। लेकिन यही जटिलता भारतीय सेना को यहाँ समुचित अवसंरचना विकास के बाद चीनी पक्ष के ऊपर एक निर्णायक बढ़त भी प्रदान करती है।
भारतीय सेना ने सीमा पर निगरानी करने के अपने तकनीकी में सुधार किया है। सैटलाइट्स, लॉन्ग-रेंज अनमैन्ड एरियल वीकल, आइएसआर सिस्टम, उच्चस्तरीय राडारों का नेटवर्क, मॉडर्न नाइट विजन सिस्टम आदि संसाधनों का प्रयोग बढ़ा है। अभी 22 दिसंबर को ही भारत ने सफलतापूर्वक अपनी अग्नि शृंखला की उच्चस्तरीय अग्नि-5 मिसाइल का रात्रि-परीक्षण किया है जिसकी मारक क्षमता 5000 किमी से अधिक है और यह मिसाइल परमाण्विक क्षमता से लैस है।
इन सबसे बढ़कर भारतीय सेना को सीमा पर बसे स्थानीय भारतीयों का पुरजोर समर्थन हासिल है। उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणांचल में सीमा पार चीन ने करीबन 628 गाँव बनाए हैं जिसे वे शाओकांग कहते हैं। इन गांवों में कोई आम आबादी नहीं रहती। इनका इस्तेमाल संभवतः ऐसी झड़पों को संभव बनाने के लिए चीनी सैनिकों को एक बैकअप देना है। सीमा पर रहने वाले भारतीय इन गांवों के उकसाव को खूब समझते हैं। हाल के दशक में हुए अवसंरचना विकास ने सीमा पर भारतीय आम जनजीवन को भी मूलभूत सुविधाएं पहुंचायी हैं, इसका लाभ भी हमारी प्रतिरक्षा पंक्ति को मिलता है। सीमा जागरण मंच जैसे संगठन भी अपने निःस्वार्थ कार्यकर्ताओं के प्रयासों से सीमा पर बसे भारतीय नागरिकों के भारतीय मुख्य चेतनाधारा से जुड़े रहने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
जहाँ भारतीय सामरिक शक्ति को समूचे भारत-चीन सीमा को लेकर सजग और तत्पर रहने की जरूरत है वहीं कूटनीतिक स्तर भी हमें किसी भी अवसर को भुनाने में पीछे नहीं रहना है। दुर्भाग्य से देश में राष्ट्रसुरक्षा से जुड़े इस मुद्दे पर भी विपक्ष टीका-टिप्पणी करने से बाज नहीं आया है और संसद के दोनों सदनों में भी उनकी अगंभीरता परिलक्षित हुई है, जिससे हर हाल में बचा जाना चाहिए।
(*लेखक, सीमा अध्ययन विशेषज्ञ, विश्व-राजनीति के जानकार एवं संप्रति एमिटी यूनिवर्सिटी, नोएडा में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक हैं।)
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